Wednesday, July 7, 2010

आकृति .....


सूरज की तरह आग है यहाँ ,
चाँद सी सीतलता भी यहाँ ,
रामायण भी यही गीता भी यहाँ ,
यही कुरान ए पाक और है इसा ,
क्या लेकर आया हु क्या ले जा पाऊंगा ,
तेरा मेरा की बीच लटक के क्या पाउँगा ,
कुछ पलो सी की सांस उधारी में पाई है ,
कुछ अधूरे से सपनो की माला पिरोई है ,
तुम और मैं एक होकर क्यों नहीं बनते हम ,
जब लहू हमारी एक है तो क्या है गम ,
आओ सपनो की सी धरती बनाये एक ,
जहा न हो भूख और न हो आतंक ,
जहा न हो रुदासी और न हो शमसान की वीरानी ,
आओ सपने को करे साकार ,
विश्व को दे नया आकार

मैं युवा हु

वीरो की भांति सीना चौड़ा हो मेरा ,
सपूतो की भांति कंधे मजबूत हो मेरा ,
कब तक चुप रहके बहूँगा मैं भीड़ के साथ ,
भ्रष्ट और कायरता पूर्ण हो चूका है देश मानों जैसे हो रात ,
खड़ा होके आवाजा उठाना है शेर की तरह ,
अकेले चलना पड़े तो चलूँगा सूरज की तरह ,
झुकूँगा नहीं मिटूंगा नहीं न ही डरूंगा मैं ,
अपनों का साथ मिले तो ठीक नहीं तो चलूँगा अकेले मैं ,
कफ़न सर पे बाँध ली है निशाना आँखों से चुन ली है ,
अब तो बस दिखाना है की बाजुओ में कितना दम है ,
युवा नहीं तो कुछ नहीं यही साबित करना है ,

एक भीनी सी याद...

कल जब मिलते थे होती थी दिल में खनक,

प्यार की पहली लम्हों में थी अजीब सी कसक,

क्यों खीचा आता था तुम्हारी बाहों में,

क्यों आँखे भींच के खोता था तुम्हारे ख्यालो में,

आज भी तुम्हारी यादे दिल में हलचल मचा जाती है,

कुछ अनछुए देखे से सपने रुदासी छोड़ जाती है,

कभी इतनी दूरी की सोची तो न थी,

उन दिनों कभी धुप और कुछ छाया सि थी,

पर आज तनहा होके भी तुम साथ हो,

दिन को तो भूल गया बस अब रात का साथ हो,

मचलता तो आज भी मेरा मन है,

क्यों न जाने उसे एक सपना दोबारा देखने को है,

आओ तुम दोबारा अपने मदमस्त चाल में,

कर जाओ घायल मुझे डाले जाओ दोबारा जाल में .

इतिहास के पन्नो तक का सफ़र

एक मिटटी के ढेर से बना हु पर अब इंसान हु,
न रोक सकते हो मुझे न ही टोक सकते हो यही सच्चाई है,
मेरी सोच में ताकत है इतनी की हवा को तूफ़ान में बदल सकता है,
सुन्दरता काफूर हो सकती हिम्मत जवाब दे सकती है,
पर इरादों की ताकत कुछ आगे तक जा सकती है,
चाहे ज़मीन हो पथरीली या हवाए बर्फीली,
हार मानना नहीं सिखा हु न ही सीखूंगा,
कुछ करने आया हु इतिहास बनके ही इस दुनिया से जाऊंगा .

एक सवाल

रोकना मत मुझे बह जाने देना ,
देश के खातिर कुछ कर जाने देना ,
क्या मेरा फ़र्ज़ मेरी हित से बढ़कर है ,
मेरी आदतते मुझ पर भारी है ,
मुझे अपनी शिद्दतो को आजमाना है,
शायद उन शहीदों के पंक्ति में खरे होना है,
पर टूट कर बिखरने से भी डरता हु मै ,
क्या सच में सच्चाइयो की परवाह करता हु मैं ,
यही सवालो के बिच अपनी मंजिल ढूँढता हु मैं,

कब तक चुप रहेंगे............

कुछ ही सालो पहले मैं अपने जेब में एक सौ का नोट लेकर बड़े मजे से दो दिन गुजार लेता था कुछ पेट्रोल पर कुछ खाने पर और कुछ चाय वैगरह पर खर्च कर लिया करता था । अब जब मैं सौ का नोट देखता हु तो ऐसा लगता है की मानो इसकी कीमत कुछ ज्यादा ही कम हो गयी है क्योंकि अब इसमें पेट्रोल और चाय ही हो पाता है खाने की बात को टालनी पड़ जाती है वो भी सिर्फ एक दिन में ही सौ रूपये की कहानी ख़त्म हो जाती है .जिसे माध्यम वर्ग कहा जाता है उस वर्ग में आने वाले कमोबेश सभी की हालत ही ऐसी है ॥ आखिर ऐसा क्या हुआ इन कुछ सालो में जो हम १४ रूपये किलो का चावल ३४ में खरीदने लगे ,३२ रूपये की दाल ८४ रूपये में खरीदने लगे और ३० रूपये लीटर का पेट्रोल ५३ तक पहुच गया .शायद कुछ दिनों में सुखा भी नहीं पड़ा देश में ,खरी में युद्ध भी नहीं हुआ और देश में कोई आपदा भी नहीं आई तो ऐसा क्या हुआ इए तो सिर्फ दिल्ली में बैठे निजामो को ही पता होगा .या फिर रिमोट से सरकार चला रही आदरनीय सोनिया जी को ही मालूम होगा .

देश की राजनीति की हालत ये है की अब सब सेटिंग पर भरोसा करने लगे है ।चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या कोई और पार्टी वो सिर्फ अपने फायदे पर काम करना पसंद करती है और अपने मकसद को हासिल करने में लगी रहती है .कभी ढोंग के लिए धरने प्रदर्शन जरूर कर लेती है पर जन आन्दोलन से पीछे ही रहना पसंद करती है .ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि इस देश में जंहा कहने को तो गणतंत्र है पर देश को चलाते मुठ्ठीभर लोग ही है .कुछ दिनों पूर्व सांसदों ने अपनी तनख्वा ५ गुना बढ़ाने की मांग की और सभी पार्टीओ के नेताओ ने तुरंत ही बिना मतभेद के इस पर सहमती जता दी .क्योंकि ये उनके खुद के जेब का सवाल था इसलिए .इस बात का अगर कोई दूसरा मतलब निकला जाए तो ये साबित होता है की पिछले कुछ सालो में महंगाई ५ गुनी बढ़ी है जिस पर पूरा संसद भी एकमत है तभी देश के बुध्धिमान सांसदों ने अपनी तनख्वा ५ गुनी बढ़वाई. पर जब आम आदमी पर पड़ने वाले इस बोझ की बात होती है तो इन सारे लोगो को सुने देना बंद हो जाता है या उन्हें इस विषय पर बोलते समय भगवान की बड़ी याद आने लगती है और अपनी जिम्मेदारी वो भगवान पे ही डाल देते है . कुछ दिन पूर्व देश के जिम्मेदार वित्त मंत्री का ऐसा ही एक बयान आया जिसमे उन्होंने कहा की अगर इस साल भगवान की कृपा से बारिश अच्छी हुई तो हो सकता है की महंगाई कुछ कम हो ,और देश के महंगाई मंत्री यानी माननीय शरद पवार जी का तो क्या कहना उनके शब्दों से देश के मध्यम वर्ग पे तो कहर बरप जाती है और शक्कर से लेके आटा तक पहुँच के बाहर होने लगती है . जब वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह वित्तमंत्री हुआ करते थे तब पूरा देश उनकी तारीफ़ करते नहीं थकती थी और उनके विकास भरे कदमो की सराहना लोग पुरे दिल से करते थे .पर अब जब वे प्रधानमंत्री है तो उन्हें क्या हो गया कोई समझ नहीं पा रहा है क्योंकि महंगाई पर प्रख्यात अर्थशास्त्री होने के वावजूद उनका गणित गरबराने लगी है.

दूसरी ओर देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा भी कोई सार्थक प्रयास नहीं कर पा रही है सिर्फ पंडालो तक ही उसका विरोध प्रदर्शन सिमित होकर रह गयी है। भाजपा अगर सचमुच देशवासियो के प्रति उत्तरदायी है और जन समर्थन से राजनीति को आगे चलाना चाहती है तो उसे मंदिर मस्जिद से ऊपर उठके लोगो की दैनिक जिंदगी के बारे में सोचना ही होगा .भावनाओ का जिंदगी पर असर तो होता है पर खालिस भावनाओ से जिंदगी की गाड़ी चल नहीं सकती ,उसे तो दाल रोटी और नित्य उपयोगी वस्तुयों की जरुरत होती है . आखिर क्यों अब तक भाजपा महंगाई के खिलाफ जन आन्दोलन को जन्म नहीं दे पा रही है, क्यों इनके धरना प्रदर्शन सिर्फ पंडालो तक सिमट के रह जा रही है क्या देश के प्रमुख विपक्षी पार्टी होने का दायित्व भाजपा सही मायनो में निभा पा रही है शायद नहीं .क्योंकि इस पार्टी में भी सुविधावादियो की एक लम्बी फौज तैयार हो गयी जो कभी जनता के बीच उनके दुःख सुख का हाल पूछने जाती ही नहीं है ,सिर्फ अपने राज्यसभा की सीट पक्की करने में लगी रहती है .

देश की इस राजनैतिक पतन के काल में सिर्फ एक आदमी ही काम आ सकता है और वो है देश का आम आदमी जिसे कोई राजनैतिक लाभ या हानि की चिंता नहीं होती .आज जरुरत आन पड़ी है हम आप जैसे करोडो इंसानों को देश में एकजुट होकर एक ऐसे जनांदोलन को खड़ा करने की जो इस महंगाई से हमे निजात दिला पाए .आज सूचनाक्रांति के इस युग में कोई जरूरत नहीं है की सिर्फ झंडे और डंडे से ही जन आन्दोलन की शुरुवात हो जिसे जैसे काम करना है करे पर महंगाई का विरोध जरूर करे. नेताओ के भरोसे बैठना छोड़ना होगा खुद अपनी कमान संभालनी होगी .कही न कही हर सकारात्मक पहल का महत्व होता ही है आज अगर देश की ११० करोड़ जनता एक साथ इस महंगाई के खिलाफ आवाज उठाएगी तो दिल्ली में बैठे निजामो की भी रातो कि नींद गाएब हो जाएगी. विरोध करने का तरीका कैसा भी हो पर महंगाई को देश में घर बसने नहीं देंगे ये हमे ठान लेना होगा , उदाहरण के तौर पर आज अगर हम घर में बैठकर एक ईमेल की श्रृखला भी बना दे जो महंगाई के विरोध से सम्बंधित हो और उसे अपने सारे दोस्तों के भेजने लगे और वो सारे दोस्त भी इस काम को अंजाम देने लगे तो न जाने एक छोटे से ईमेल का प्रभाव कितना बढ़ जायेगा उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसे ही न जाने कितने काम है जो देश का हर आम आदमी चुप चाप कर सकता है .पर जरूरत है उस जज्बा की जो हमे अपनी नींद से जगाये . आज इस बात पर भी ध्यान देना होगा की आखिर कब तक चुप बैठेंगे हम लोग क्या सिर्फ ५ सालो में एक बार वोट देने से ही गणतांत्रिक ढांचा मजबूत रह सकता है ,क्या एक बार हम जिसे ५ वर्षो के लिए राजा बना देंगे वो अपनी मनमानी कर सकता है .ऐसी तमाम बातो को हमे झुटलाना ही होगा नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब हमे रास्ते पे बैठकर अमरीका जैसे देशो की ओर भीख का कटोरा हाथ में लिए टकटकी लगाकर देखने की नौबत आन पड़ेगी . आज अगर हम देश की नहीं सोचे तो हमारी भी कोई सोचने के लिए नहीं बचेगा .

Thursday, July 1, 2010

आखिर कब तक चलेगा शहादतो का सिलसिला

एक बार फिर हमारे वीर जवानो के रक्त रंजित शरीरो को नम आँखों से श्रधांजलि की चादर ओढ़ाई गयी कुछ और विधवाओ ने सिस्टम से जन्म लिया और कुछ अनाथो का देश से नया रिश्ता जुड़ गया । जब जब नक्सली हमला होता है तो पुरा देश बेचैन दिखता है और प्रशासन खामोशी से अपने को बचाने मे लग जाती है ,खाली बाते होती है प्रेस कांफ्रेंस ली जाती है और फिर दोबारा जवानों को मौत की घाटी में झोंक दिया जाता है । क्या इन प्रशासनिक पदों पर कार्य करने वालो का खून पानी में तब्दील हो चूका है जो इन्हें उन बर्बर नक्सलियो से बदला लेने की नहीं सूझती । सरकार क्या इतनी लाचार हो गयी है कि इन मौतो से उसकी कुम्भकरनी नींद नहीं टूट रही है । दूसरी ओर देश का सबसे बड़ा मंत्रालय (रेल मंत्रालय)पहले से ही नक्सलियो के सामने घुटने टेक बैठी है और अपने ट्रेनों का संचालन करना रात को बंद कर चुकी है ,पर इस बात से रेल मंत्री सुश्री ममता बनर्जी को कुछ ख़ास लेना देना नहीं है क्योंकि वे अभी सामने आने वाले बंगाल चुनाव में मस्त है चाहे यात्री कितना ही पस्त है ।अब सवाल उठता है की आखिर कब तक ये शहादतो का सिलसिला जरी रहेगा कब तक वीर जवान शहीद होते रहेंगे कब तक उनकी निर्दोर्ष पत्नीया विधवाए बनती रहेगी क्या इसका कोई अंत होगा ? ये कैसा देश है जहा एक ओर हम अपने अतीत के शहीदो की वीर गाथा गाते नही थकते तो दुसरी ओर वर्तमान के सैनीको को खुले मैदान मे मरने छोड़ देते है । काफि दिनो से खोकली बाते चल रही है की नक्सलियो से लड़ने के लिये नयी रणनीति तैयार की जाएगी सेना की मदद ली जाएगी वैगरह वैगरह आखिर कब इए सब किया जायेगा जब हमारे देश में सीआरपीएफ में भर्ती होने से लोग कतराने लगेंगे तब ,या जब तक कोई बड़ा मंत्री या नेता शहीद नहीं होगा तब तक ,पता नहीं कौन सी काली रात इन मंत्रियो को होश में लाने का काम करेगी। गौर करने वाली बात ये है की अब तक नक्सली हमले में मरने वालो की संख्या किसी युद्ध से कम नहीं है फिर भी हमारे कई मंत्री नेता गाहे बगाहे बयान दे देते है की ये शशस्त्र संग्राम नहीं है ये बैचारिक मतभेद है। क्यों ऐसी बाते करके अपने नामर्दी को छुपाते है इसका इनके पास कोई जवाब नहीं है । देश की 110 कड़ोर जनता अपने लीडर के रूप में किसी नामर्द को पसंद नहीं करती और आज भी उम्मीद करती है की कोई लौह पुरुष आये और इस नक्सली समस्या से देश को निजात दिलाये पर क्या करे राजनीती के अन्दर बटते खीर मलाई ने सब नेताओ के हाथ पैर नाकाम कर दिए है । आखिर केंद्र सरकार की ऐसी कौन सी मजबूरी है जो हर बार नक्सली हमले होने के बाद राज्य शासनों के ऊपर दोष मढने में कोई कसार नहीं छोडती है, पर सेना के इस्तमाल के नाम पर सारे केंद्रीय मंत्रियो की राय अलग हो जाती है और गृह मंत्री भी ख़ामोशी की चादर लपेट चुप हो जाते है। ये वही केंद्रीय मंत्रिमंडल है जो परमाणु मुद्दे पर अमरीका से हाथ मिलाने को एक जुट दिखती है महंगाई बढाने पर एक मत दिखती है घोटालो को अंजाम देने एक साथ दिखती है तो फिर इस मुद्दे पर अलग अलग क्यों इसकी भी जांच होनी चाहिए। किस पार्टी को किन नक्सली क्षेत्र में चुनावो में सफलता मिल रही है इस पर भी नज़र होना चाहिए क्योंकि अगर हाथ मिलाना ही है तो खुले आम मिलाओ नक्सलियो से, पर जवानों के लाशो पर बैठकर नहीं। क्या सचमुच हमारे देश की सेना जिसके लिए साल भर में हजारो कड़ोर रूपये खर्च किये जाते इस नक्सली समस्या से दो दो हाथ करने में नाकाम है ,या फिर देश के प्रशासन की इच्छाशक्ति में कमी है । मुझे तो सैनिको के कार्य क्षमता में कोई कमी नज़र नहीं आती है नहीं तो हम कारगिल जैसे मुश्किल हालातो में विजयश्री प्राप्त नहीं कर पाते। मुझे इन नेताओ के नियत और इच्छाशक्ति में ही खोट नज़र आती है जो आर पार की लड़ाई से अपना पल्ला बचाने में लगे है क्योंकि उन्हें अपने वोट बैंक का डर और चुनावो में इन नक्सलियो से की गयी सांठ गाँठ के न बचने का डर सता रहा है। बस्तर में पिछले कई दशक से नक्सलवाद की हवाए गर्म है और न जाने कितने ही बेगुनाहों के खून का इस्तमाल इस हवा को गर्म रखने के लिए अब तक किया गया हो। अगर गिनती की जाये तो नक्सली हिंसा में मरने वालो की संख्या हजारो में आएगी ,ये कैसी क्रांति है जो एक देश के ही दो निवासिओ को आपस में खून बहाने को मजबूर कर रही है ,ये कैसी क्रांति है जो छोटे छोटे दूधमुहे बच्चो को अनाथ बनाते जा रही है, ये कैसी क्रांति है जो न जाने कितनो के मांग उजार चुकी है । मुझे इन क्रांतिकारियों से भी पूछना है की आखिर ऐसी कौनसी माया है जो तुम अपने धरती माता का ही सौदा कर बैठे हो और उसे खून पिलाने की कसम खा चुके हो और वो भी अपने ही भाइयो का खून । कुछ कहते है की देश में नक्सली समस्या के पीछे चीन का हाथ है तो कुछ और मत रखते है पर सच्चाई तो ये है की आज ये किसी युद्ध से कम नहीं और अगर हम इसे युद्ध की तरह न ले तो वो दिन दूर नहीं जब भारत माता की कोख से एक दुसरे देश का उदय हो जायेगा ।अब ये साफ़ हो चूका है आपकी बाते सुनने वाला कोई नहीं बचा है अगर सुनेंगे तो सिर्फ गोलियों की आवाज और सर झुकायेंगे तो सिर्फ सेना के सामने तो फिर ये टालाम टोल क्यों जो करना है जल्दी करो अब और शहीदों का बोझ नहीं उठा सकती है, अब वो समय आ गया है जब रिअक्टन नहीं अपितु रिसल्ट की जरुरत है ।