Thursday, August 12, 2010

खेल संघो में खिलाड़ियो के बजाय पैसेवालों का कब्ज़ा

सोचिये ज़रा अगर किसी ऑटोचालक को विमान चलाने दे दिया जाये तो कैसा नज़ारा होगा ,बहरहाल शायद ऐसा कोई अनूठा प्रयोग अब तक किसी देश में नहीं हुआ होगा और शायद कभी होगा भी नहीं. पर ऐसे ही अनूठे प्रोयोग देश के खेल संघो में रोजाना देखने को मिलते है ये वोही खेल संघ है जो देश को ओलिम्पिक खेलो में पदक तो नहीं दिलवा पाते है पर जिनके बजट भारी भरकम होते है .अगर नज़र दौड़ाया जाए तो देश में पता नहीं कितने ऐसे खेल संघो के नाम मिल जायेंगे वास्तव में जिनसे सम्बंधित खेल कभी देखने को ही नहीं मिलते है . फिलहाल हमारे देश में अगर क्रिकेट को छोड़ दिया जाए तो शायद ही ऐसा कोई खेल बचता है जिसके कारण हम विश्व में अपनी पहचान बता पाए . हाकी को जिसे हम अपनी राष्ट्रीय खेल के रूप में देखते है वो भी काफी सालो से कोमा में चली गयी है . सालो साल आखिर इतने पैसे खर्च करने के बाद भी देश के खेल स्तर में सकारात्मक बदलाव क्यों नहीं दिख रही है ? इस सवाल का जवाब तो शायद ही किसी खेल संघ के पास होगा . आज खेल संघो में पदाधिकारी बनना प्रतिष्ठा का परिचायक बन गया है और कमाई का स्त्रोत भी . ऐसे भी इस देश में कहावत है की ' पैसा ही पैसे को खिचता है ' शायद इसी कहावत को सच साबित करने के लिए देश के सारे खेल संघो के पद पैसेवालों या रईसों के लिए आरक्षित कर दिया गया है . ऐसे रईसजादों को खेल संघो का कमान सम्हालने को दे दिया जाता है जिन्होंने अपने जीवनकाल में उक्त खेल को कभी खेला ही नहीं होगा तो ऐसे में उनसे ये उम्मीद रखना की वो खेल के बारीकियो को समझे और उसके विकास के लिए काम करे पूर्ण रूप से निरर्थक लगता है. भारत जिसका नंबर जनसँख्या के दृष्टी से चीन के बाद ही आता है वो ओलिम्पिक खेलो में पदक तालिका में निचे से एक दो नंबर का ही दावेदार बनता है और तब खिलाड़ियो पर सारा दोष डाल दिया जाता और उनके काबिलियत पर न जाने कितने सवाल उठाये जाने लगते है .पर जब माहौल ही खिलाड़ियो के खिलाफ हो तो वो करे भी क्या .

मैं छत्तीसगढ़ का निवासी हु जहा दो तीन दिन बाद "भारत के गुलामी का प्रतिक क्वींस बैटन " पहुँचने वाला है . पिछले कुछ दिनों से यहाँ इस बाबत तैयारिया चरम पर है और सभी खेल संघो में पदाधिकारियो के बीच घमासान चल रहा है .पर इस घमासान में खेल प्रेमी या खिलाड़ियो का टोटा है .इस धमचौकरी में प्रदेश के सारे रईस शामिल है जो शायद मैदान पर अपना कमाल दिखा पाएंगे या नहीं ये तो पता नहीं ,पर वातानुकूलित होटलों के कमरों में अपना कमाल दिखाने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे है . बड़े बड़े पोस्टरों और होर्डिंगो द्वारा खेल के प्रचार के बजाय अपना प्रचार किया जा रहा है . इन प्रचारों के पीछे भी एक सोची समझी साजिश है जिस अगर ध्यान से समझा जाये तो पता चलता है की ये लड़ाई कुछ हज़ार करोड़ रुपयों की है जो नेशनल गेम्स 2013 के लिए प्रदेश को मिलने वाला है. कमोवेश पुरे देश में ही ऐसे हालत है , सारे के सारे खेल संघो में ऐसे लोगो की भरमार है जिन्हें खेल से ज्यादा उसके अप्रत्यक्ष फायदों से मतलब है. पर इन लोगो के वजह से खिलाड़ियो को इन खेल संघो में जगह ही नहीं मिल पाती है और जिस वजह से नए तकनीक और जानकारी का आभाव बना रहता है खेलो में .
कलमाड़ी जी की प्रतिष्ठान राष्ट्र मंडल खेलो की तो बात करना ही ऐसे में बेमानी लगती क्योंकि वो तो राजनीती और भ्रस्टाचार का अखाड़ा बन गया है .भारत में किसी ख़िलाड़ी की कोई कमी है, जो इन रईसों को जनता के गाढ़ी कमाई का पैसा सौप दिया जाता है उड़ाने और अपने जेब भरने के लिए . आखिर कब भारत की शान कहलाने वाले खिलाड़ियो को उनका हक मिलेगा और हम अपने देश को सारे अंतराष्ट्रीय खेल आयोजनों में पदक तालिकाओ की सूचि में अच्छे स्थान पर देख पाएंगे और कब पैसे के जगह काबिलियत को खेल संघो में वरीयता प्रदान किया जायेगा इए कुछ ऐसे सवाल है जिनका उत्तर तो शायद आज किसी के पास भी नहीं होगा . इन खेल संघो के पैसो पे कोई विदेश में आराम फरमाता है तो कोई अपने निवास में व्याम के आधुनिक उपकरण लगवाता है . ये वोही देश है जहा ओलिम्पिक में कुश्ती में स्वर्ण पदक जितने वाले को अपनी जिंदगी के अंतिम दिनों में भीख मांग कर गुजरा करना पड़ता है पर कुश्ती संघ ने न जाने अब तक कितने ही लोगो को विदेश सैर करवा दिया होगा . क्या किसी के आमिर या गरीब होने से ही उसके काबिलियत को आँका जा सकता है अगर नहीं तो फिर खेल संघो से इन नाकारा रईसों को क्यों निकाल नहीं दिया जाता है ? और उनके जगह देश के खिलाडियो को मौका दिया जाता है .अगर किसी भी खेल की गवर्निंग कमिटी को देखा जाए तो तथाकथित समाजसेवी और खेल प्रेमी का ऐसा झुण्ड नज़र आता है जो गिद्ध की तरह लगे हुए रहते है उस खेल संघ के पैसो को हज़म करने में . मुझे लगता है समाज को एकजुट होकर इस एकाधिकार का विरोध करना चाहिए और ऐसे सारे खेल आयोजनों का बहिष्कार कर देना चाहिए जिनसे अमीरों के जेब फल फुल रहे है . आई पि एल ने सारे देश के सामने अपनी हकीक़त खुद ही बया की और इससे भी पर्दा उठा की कैसे कुछ कद्दावर लोगो के बीच पैसो का बन्दरबाट हुआ . मैंने इस लेख के द्वारा सच्चाई बयान करने एक कोशिश की है ,अगर कुछ और लोग भी ऐसे कोशिश करे तो शायद कुछ बदलाव आ सकता है क्योंकि अभी भी सकारात्मक सोच के लोगो की कमी नहीं है इस देश में.

Monday, August 2, 2010

लोकतंत्र का गद्दार कौन ?



आज एक चैनल पर आ रहे कार्यक्रम 'लोकतंत्र के गद्दार ' को देखने के बाद मेरे मन में एक सवाल बार बार आया की आखिर लोकतंत्र का गद्दार है कौन ? कुछ दिनों पूर्व रायपुर में हुए एक सेमिनार में मैंने स्वामी अगनिवेश के साथ कुछ और बुद्धिजिवियो को सुना था तब भी मेरे मन में ऐसे ही सवाल आये थे ,उनके श्रीमुख से जो भी कुछ निकला मुझे कुछ हज़म नहीं हुआ और शायद ही किसी समझदार युवा को हज़म हुआ होगा . आज हर व्यक्ति आये दिन हमारे लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा करने की कोशीश करते नज़र आता है और मुझे तो लगता है की ये बुध्धिजीवी कहलाने और बनने के लिए जैसा पहला कदम हो . और तो और लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाली मीडिया भी इसमें कोई कसर नहीं छोड़ता , आज मीडिया किस जगह पहुँच गयी है ये तो शायद ही किसी से छुपी है , घर घर की कहानी को लोगो के सामने पेश करने में मीडिया को कभी शर्म नहीं आती उल्टा अपने पीठ को खुद ही थपथपाने में लगी रहती है .पर मुझे एक बात समझ नहीं आती की आखिर क्या सारी बुराइया सिर्फ लोकतंत्र और राजनीती में ही है बाकी सबका दामन पाक साफ़ है .आज इस देश के भ्रष्ट सिस्टम में शायद ही ऐसी कोई व्यवस्था बची है जो भ्रष्ट नहीं हुआ है ,पर मीडिया को और बुद्धिजीविओ को ये सब नज़र नहीं आता है. उस सेमिनार में एक बात आई जिसमे कहा गया की आज के लोकतंत्र का मतलब है की कुछ चुने हुए प्रतिनिधिओ द्वारा चलायी जा रही सरकार जो सिर्फ उन प्रतिनिधिओ के लिए ही काम करती हो , एक आंकड़ा भी पेश किया गया जिसमे उल्लेख किया गया की देश के सर्वोच्च संसथान लोकसभा और राज्यसभा में परिवारवाद का और पैसो का ही बोलबाला है . पर ये बात किसी ने नहीं कही की देश के आज़ाद होने 60 साल के बाद भी देश का मतदान प्रतिशत 60% से आगे नहीं बढ़ पाया और किसी ने कोशिश भी नहीं की इसे बढ़ाने की . ये भी हो सकता है की मंच पर लोकतंत्र के बारे में जो आग उगलते है वो भी अपने आप को मतदान करने से वंचित रखते है . मतदान वाले दिन शायद ही कोई मीडिया कर्मी अपनी ऊँगली में साही दिखा पाता है और दूसरो को प्रेरित कर पाता है मतदान के लिए .
अगर ध्यान से देखा जाए तो समझ आता है की एक सोची समझी साज़िश के तहत एक वृहद कोशिश चलाई जा रही है इस देश में राजनीती और लोकतंत्र को बदनाम करने की ताकि आम आदमी इससे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझे. आज देश की परिस्थिति ये है की नब्बे प्रतिशत लोग राजनीति को गन्दा कहने से भी परहेज़ नहीं करते और उच्च वर्ग और कॉर्पोरेट जगत तो मतदान को भी समय की बर्बादी समझते है ,ऐसे में लोकतंत्र का मतलब ही क्या रह जाता है. आज बच्चा जब स्कूल जाता है तो उसके माँ बाप की एक ही ख्वाहिश होती है की वो बड़ा होके डॉक्टर ,इंजिनियर या कोई प्रोफेसनल कोर्स करके विदेश में सेटेल हो जाये और डालर में कमाई करे , क्या कोई माँ बाप सोचता है की उसके संतान देश के सिस्टम के लिए कुछ करे शायद इसके जवाब में हा कभी सुनने को नहीं मिलेगा. क्या कोई बच्चा एम.बी.ऐ की पढाई करते समय देश में मंत्री या जनप्रतिनिधि बनकर काम करने की सोचता होगा शायद इस प्रश्न के उत्तर में भी न ही मिलेगा . तो अब लोकतंत्र का क्या दोष है जब काबिल आदमी इस ओर कदम बढ़ाएंगे ही नहीं तो सिस्टम में खराबी आएगी ही . सारे लोग एक बात जरूर कहते नज़र आते है की राजनीती में तो कोई भी आ सकता है इसके लिए कोई डिग्री या डिप्लोमा की जरूरत नहीं पड़ती .पर क्या डिग्री पाने के बाद कोई राजनीती में आने की चाहत रखता है ये सवाल कोई नहीं पूछता . क्या गन्दगी सिर्फ राजनीती में ही है ये सवाल मैं उन सभी बुद्धिजीविओ से पूछना चाहता हु क्या कॉर्पोरेट जगत ,मीडिया जगत ,शिक्षा जगत या ऐसी सारी जगह पाक साफ़ है इनपे कोई ऊँगली क्यों नहीं उठाता. राखी सावंत के ठुमको को बेचने वाली मीडिया भी राजनीती के पीछे ऐसे हाथ धोके पड़ी रहती है जैसे मानो राखी सावंत से ठुमके लगवाने के लिए भी लोकतंत्र और राजनीती ने ही मीडिया को प्रेरित किया हो . टी.आर.पि के अंधी दौर में भागते भागते आज मीडिया जो परोस रही है शायद इसकी परिकल्पना भी किसी ने नहीं किया होगा . कुछ सालो पहले ऐसी कई प्रतिबंधित किताबे छपती थी जो सभ्य समाज के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती थी आज वैसी कहानिया सारे चैनलों के लिए प्राइम टाइम खबरे है .क्यों इन बुध्धिजिवियो को ये सब नहीं दीखता .
शायद इन लोगो ने कसम खा ली है की देश के लोकतंत्र और राजनीती को इतना बदनाम कर देंगे की 110 करोड़ की जनसँख्या वाले इस देश में राजनीती में आने के लिए लोगो का टोटा लग जाए और परिवारवाद का वृक्ष पूरी तरह से इस देश को अपने आगोश में समां ले . मुझे तो इन लोगो के समझदारी पे बड़ा तरस आता है और उनके देशप्रेम के ढोंग से नफरत होती है . जिस लोकतंत्र के बल पे वे बुध्धिजीवी कहलाते है उसी को दिलखोल कर गाली देते है . तो ऐसे में इन बुध्धिजिवियो को देशद्रोही या गद्दार क्यों न कहा जाये . आज वो वक़्त आ गया है जब युवावर्ग को कमान अपने हाथ ले लेना चाहिए और इन देशद्रोहियो को बेनकाब कर देना चाहिए और इनके विचारो को सिरे से खारिज कर इनसे बुद्धिजिवि कहलाने का हक छीन लेना चाहिए . मीडिया की भी क्या कहे वो इस युवा वर्ग को बिग बॉस संस्कृति में इस तरह फ़साना चाहती है की उससे ऊपर उठके युवा कुछ देख ही न पाए . एक बड़े पत्रकार ने उसी मंच से एक बड़ी अनोखी बात कही की तकनीक के साथ संस्कृति भी बदलती है . पर क्या किसी देश की तकनिकी विकास ने उसे मजबूर किया की वो अपने संस्कृति को बदल दे इसका उत्तर उनके पास शायद ही होगा . क्या किसी तकनीक ने मजबूर किया की टीवी पर इमोसनल अत्याचार देखे या स्वयंवर का तमाशा देखे . इस मीडिया को तो किसी जवान के बहते खून में भी सिर्फ टी.आर.पि दिखती है, तभी तो उसके बहते खून के आगे एक्सक्लूसिव का टैग लगा देते है और उसमे उन्हें कोई शर्म भी नहीं आती . मीडिया कैसे कौडियो के भाव बिकने लगी है इसके तो न जाने कितने उदाहरण है, पर मैं जिस प्रदेश में रहता हु वहा भी मीडिया किसी धंधे से कम नहीं है. इस प्रदेश के चार बड़े मीडिया हॉउस क्रमश केमिकल , स्टील , पावर , और कोयले के धंधे में व्यस्त है और अपने पावर का इस्तमाल सिर्फ अपने लिए करते है . कमोवेश पुरे देश का ही हाल ऐसा है सारे बड़े चैनल किसी न किसी उद्योग को बढ़ावा देने में लगी रहती है . तो फिर क्यों लोकतंत्र को निशाना बनाना अगर इसमें बुराई है तो अच्छाई भी है . अब देशवासियो पे ये छोड़ दिया जाना चाहिए की वो तय करे की आखिर लोकतंत्र का असली गद्दार है कौन ?