Wednesday, April 27, 2011

ये कैसा सुराज ये कैसा दिखावा !

सुनने और पढ़ने में शायद ये काफी अजीब लगे पर ये सच है कि छत्तीसगढ़ सरकार 5 सालो में 50 दिन जनता के बीच बिताती है और उसे सुराज के नाम से प्रख्यात करने में कोई चूक नहीं करती है. आखिर ये कैसा सुराज है जहा नौकर शाह खाना पूर्ति करने के नाम से मात्र 10 दिन अपना पसीना बहाकर वाह-वाही लूटने को आमादा दिखती है. छत्तीसगढ़ ऐसे भी नौकर शाहों का ही प्रदेश बनकर रह गया है , कहने को तो यहाँ भाजपा कि सरकार है पर हकीक़त में इस प्रदेश को नौकर शाह ही चला रहे है और सरकार के सारे मंत्री इनके सामने अपनी चलाने में नाकाम साबित हो रहे है. डॉ रमन सिंह ने अपनी पहली पारी में जितनी लोकप्रियता हासिल कि थी शायद दूसरी पारी में वो नहीं कर पा रहे है और इसका प्रमुख कारण उनका कार्यकर्ताओ और जनता से सीधा संवाद न होना . उनके आस-पास कार्यकर्ताओ का तो टोटा सा लग गया है या जो है उन्हें भी नौकर शाहों ने मुह बंद रखने कि हिदायत दे रखी है.

भारतीय शिक्षा प्रणाली को गौर से अगर देखा जाए तो ये नौकरशाह कागज़ के शेर ही नज़र आते है जो अपनी आधी जिंदगी किताबी ज्ञान बटोरने में लगाते है और जिनका समाज से लगाव बहुत कम ही रहता है. जब ये तथाकथित कागज़ के शेर अपने कुर्सी को सम्हाल लेते है तो ये अपने आधीन काम करने वालो पर 100 फीसदी निर्भर हो जाते है और सिर्फ हस्ताक्षर करने तक अपने आप को सीमित कर लेते है. यही कारण है कि ये नौकरशाह 10 दिन में सुराज लाने कि कल्पना करते है और अपने मुखिया के आँख में धूल झोंककर आरामदायक कुर्सिओ पर जमे रहने कि कोशिश करते है. आज पूरे प्रदेश में ग्राम सुराज कि जमकर खिचाई हो रही है ,कही अधिकारिओ को बंद कर दिया जा रहा है, तो कही सुराज का बहिष्कार किया जा रहा है इससे तो ये ही प्रतीत हो रहा है कि अब प्रदेश वासिओ को 10 दिन के सुराज के नाम पर अधिकारी वर्ग मूर्ख नहीं बना सकते है.

डॉ रमन सिंह को भी अब समझना चाहिए कि इस प्रदेश कि जनता ने भाजपा पर भरोसा किया है ना कि इन नौकरशाहों पर और उन्हें बागडौर अपने हाथ में ले लेना चाहिए. ये वो ही देश है जहा मायावती जैसी महिला मुख्यमंत्री ने एक दिन में ही 144 आईएएस व आईपीएस जैसे अफसरों पर गाज गिराके समझा दिया था कि इस देश में लोकतंत्र है और नौकरशाह लोकतंत्र के अधीन होते है न कि उससे ऊपर. ऐसे भी ये नौकरशाह सुख के पंछी होते है जब जिसकी सरकार तब उनके होते है, शायद डॉ साहब को ये बाद में समझ आएगा जब वे सरकार में नहीं रहेंगे. कोई भी राजनैतिक पार्टी को नीति निर्धारण करते समय अपने कार्यकर्ताओ को ज्यादा तवज्जो देनी चाहिए क्योंकि ये वो ही कार्यकर्ता होते है जो अगले चुनाव में जनता के बीच जाने वाली होती है या जिनका सीधा संवाद जनता से रहती है. पर इस प्रदेश में सारे निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ अधिकारिओ के पास है, चाहे वो जैसे भी उनको तोड़े-मरोड़े कार्यकर्ता सिर्फ आहे ही भर सकता है.

रमन सिंह ने जब दोबारा मुख्यमंत्री कि कुर्सी सम्हाली थी तो परिदृश्यो को देखकर ऐसा लगता था कि शायद ये पश्चिम बंगाल में वामदलों द्वारा बनाये गए 35 साल के रिकॉर्ड को तोड़ देंगे, पर अब ढाई साल बाद ऐसे सोचना भी मूर्खता सी ही लग रही है. रोज सुबह मैं जब अखबार लेकर बैठता हूँ,तो मेरे चेहरे पर सहसा ही हंसी फूट जाती है सुराज के जनसंपर्क अभियान को देखकर, हर अखबार के मुख्य पृष्ट पर डॉ. साहब के तस्वीर वाला ग्राम सुराज से सम्बंधित बड़ा सा विज्ञापन लगे रहता है और ठीक उसके ऊपर समाचार रहती है कि फला जगह ग्राम सुराज दल को बंधक बनाया गया . तो ये सरकारी पैसो को स्वाह कर विज्ञापन क्यों छपवाया जा रहा है ये समझ से परे है जब अभियान ही नहीं चल पा रहा है तो इतना खर्च क्यों ? मजे कि बात तो ये भी है इस ग्राम सुराज अभियान में कुछ दिनों पूर्व एक विधायक को भी ग्रामीणों ने बंधक बना लिया था, ये साफ़ साफ़ सन्देश है रमन सरकार के लिए कि नीतिओ में बदलाव जरूरी है अधिकारिओ पर कसाव जरूरी है, सरकार कार्यकर्ताओ के साथ मिलकर चलाया जाता है नाकि निरंकुश अधिकारिओ के भरोसे. चुनावो को भले ही ढाई साल बचे है पर कार्यकर्ताओ कि पूछ परख रहेगी तभी भाजपा को विजयश्री प्राप्त हो पायेगी और ये अधिकारी वर्ग तो आंचार सहिंता के बाद से ही पराये हो जायेंगे.

10 दिन के सुराज से कोई बदलाव नहीं आना ग्राम स्तर पर ठोस कार्यक्रमो कि जरूरत है जो 24 घंटे और 365 दिन के लिए हो, ये छोटे मोटे गानों से कुछ नहीं होने वाला है साहब यहाँ तो पूरी पिक्चर कि जरूरत है, भाजपा को भी जरुरत है कि सरकार पे अपना लगाम लगा कर रखे नहीं तो 2014 का सपना एक बार फिर हाँथ से निकलता ही दिखेगा और लकीर के फकीर बनकर 2019 तक विरोध ही करते रहना पड़ेगा. प्रदेश कि ऐसी कई परियोजनाए है जो वाकई में सुराज ला रही है इनके क्रियान्वयन पे जोर देना होगा न कि अखबारों के विज्ञापन से किसी का भला हो पायेगा. ये अखबारों को भी शाबाशी देनी चाहिए जो अपने दोयम चरित्र को अपने मुख्य पृष्ठों पर छापने से भी नहीं कतराते है. एक तरफ ग्राम सुराज का लाखो का विज्ञापन और दूसरे तरफ उसकी निंदा..............।

Monday, April 11, 2011

अनगिनत टैक्स से जूझता आम भारतीय नागरिक

कुछ दिनों पूर्व जब मैं रायपुर से नागपुर तक का सफ़र अपनी गाडी से कर रहा था तो एक ख्याल मेरे मन में हर कुछ किलोमीटर के सफ़र के बाद बार बार रहा था कि आखिर मैं इन्कम टैक्स पटाता ही क्यों हू ? और ये सवाल इसलिए रहा था क्योंकि इस 300 किलोमीटर के सफ़र में मेरे जेब से टोल टैक्स के रूप में 100 रुपये लग चुके थे और वापस आते वक़्त भी इतने का ही चुना मुझे दोबारा लगा . मुझे ये भी पता है कि शायद इन पंक्तियो को पढ़ के कुछ लोग जरूर ये बोलेंगे कि देखो ये व्यक्ति मात्र 200 रूपये के लिए रो रहा है . क्योंकि सबसे बड़े लोकतन्त्र में ऐसी भावनाए रखने वालो को अक्सर हीन दृष्टी से देखा जाता है या ये सोचा जाता है कि ऐसी सोच रखने वालो के पास कोई काम नहीं होता है. ऐसे आजकल देश का इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट बहुत तेज तर्रार हो चुका है और अपने विज्ञापनों के माध्यम से लोगो के बीच डर और देशप्रेम दोनों भावनाओ को जगाने में लगा हुआ है. इनके विज्ञापनों में ये बताया जाता है कि हमारे टैक्स के पैसो से रास्ते, पूल आदि
अन्धोसंराचना का विकास होता है. पर अब मेरा सवाल ये है कि अगर मैं हर साल इन्कम टैक्स नियमित रूप से अदा करता हू तो इसका मतलब कही कही मेरा योगदान भी इन सड़को के निर्माण में है तो फिर मुझसे टोल टैक्स क्यों लिया जाता है?
देश के इकोनोमिक सिस्टम को अगर गौर से देखा जाए तो ये पता चलता है कि यहाँ हर नागरिक चाहे वो इन्कम टैक्स के दायरे में आता हो या हो पर उसे हर दिन अनगिनत टैक्स पटाना पड़ता है . हद तो ये है कि मनोरंजन पर भी कर अदा करना पड़ता है और इन गाढ़ी मेहनत कि कमाई से हजारो करोड़ के घोटालो को अंजाम दिया जाता है . आलम तो ये है कि आज हर भारतीय नागरिक को अनगिनत टैक्स पटाने पड़ते है चाहे वो इन्कम टैक्स के दायरे में आता हो या नहीं . एक मोबाइल के बिल में सरकार 3 तरह के टैक्स वसूलती है, 10 फीसदी का सर्विस टैक्स, 2 फीसदी एजुकेशन सेस और उस पर 1 फीसदी का हायर एजुकेशन सेस. देश जब आज़ाद हुआ था तब सूदखोरी को कानूनन अपराध के श्रेणी में लाया गया था पर आज जो इन्कम टैक्स विभाग हर टैक्स के ऊपर टैक्स ले रही है तो ये क्या अपराध नहीं है . अगर यूरोप और एशिया के ज्यादातर देशो के टैक्स पालिसी को देखा जाए तो कही भी सर्विस टैक्स का उल्लेख के बराबर ही है. अमरीका और ब्रिटेन में डायरेक्ट सर्विस टैक्स का प्रावधान है ही नहीं और ही सेस का, आखिर भारत कि अर्थव्यवस्था में ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी है कि एक एक नागरिको को टैक्स के बोझ के तले दबा दिया जा रहा है .
आज देश के महंगाई के स्तर को देखे तो 1,80,000 कि टैक्स फ्री लिमिट बहुत कम लगती है, बड़े शहरों में तो इतने में मध्यम वर्ग का घर नहीं चल पाता है . महानगरो कि परिस्थिति ये है कि खाली किराया में ही लोगो को लाखो खर्च बढ़ जाते है , बच्चो कि शिक्षा और स्वस्थ के तो क्या कहने इन पर तो जितना खर्च कर ले उतना कम है. तो आखिर ये सब सरकार को समझ क्यों नहीं आती है. भारत शायद इस विश्व के कुछ चुनिन्दा देशो में आता है जहा मनोरंजन पर भी टैक्स लगाया जाता है , मतलब आपको खुश रहने का भी टैक्स अदा करना पड़ता है.
इस देश में जो वर्तमान टैक्स पोलिसी है उसके तहत यहाँ के नागरिको को पहले पैसे कमाते वक़्त टैक्स चुकाना पड़ता है और जब वे अपने उन पैसो को खर्च करते है तो दोबारा टैक्स पटाना पड़ता है. बाद में यही टैक्स का पैसा है जो घोटालो के रूप में भ्रष्ट नेताओ और अधिकारिओं के जेब गरम करने का काम करता है और कभी कभी इन तमाम कद्देवर लोगो के स्वीस बैंक में भी सड़ते है . एक सर्वे के अनुसार स्विस बैंक में रखे भारतीय पैसो को अगर देश में लाया जा सका तो एक ऐसी व्यवस्था कड़ी हो पायेगी जिससे आने वाले ३० सालो तक देश के नागरिको को टैक्स से राहत दिया जा सकेगा. ये वही देश है जहा एक केंद्रीय मंत्री के अध्यक्षता वाले अंतरास्ट्रीय क्रिकेट कमेटी को 45 करोड़ रुपये कि टैक्स छूट प्रदान की जाती है. आखिर ऐसा इस कमेटी ने देश के लिए क्या कर दिया कि इस संस्था को इतनी बड़ी छूट दी गयी ? ये समझ से परे है अलबत्ता देश के महंगाई मंत्री शरद पवार ने इस छूट कि नीव रखी ये जग जाहिर है.
जब अन्ना हजारे जी मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूका तो पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया, कभी अगर इस ओर भी उनका विचार गया तो शायद देश में सत्तासीन लोगो के कान में आवाज पहुच पायेगी.