Tuesday, October 22, 2013

क्या भाजपा की रबड़ी पकेगी ?

प्रदेश में चुनावी सरगर्मी चरम पर पहुंच गयी है. दोनों प्रमुख राजनैतिक पार्टियां अपनी-अपनी जमीन तलाश रही हैं । एक ओर जहां भाजपा अपनी विकास की गाथाओं पर वोट मांगते नजर आ रही है, वहीं कांग्रेस बेहतर छत्तीसगढ़ बनाने का दावा ठोक रही है. इन चुनावों में प्रत्याशी चयन में दोनों पार्टियों को काफी मशक्कत करनी पड़ रही है, खासकर सत्ताधारी पार्टी को। असंतोष और भितरघात ये दोनों ऐसी चीजें हैं जिनसे आने वाले समय में भाजपा को दो-दो हाथ करना पड़ेगा। कांग्रेस पिछले दस सालों से सत्ता से बाहर है, शायद इसी वजह से पार्टी में अंतर्विरोध कम नजर आ रहा है। चुनावी विश्लेषकों की मानें तो भाजपा विकास के मुद्दे पर तो इस जंग में आगे दिखाई पड़ती है और मजबूत चेहरा भी उसके साथ है। डॉ. रमन सिंह की साफ-सुथरी इमेज को जहां भाजपा भुनाने में लगी है, वहीं कार्यकर्ताओं की घोर उपेक्षा को अनदेखी करना लाजमी नहीं होगा। इस लेख को लिखते वक्त अनायास ही डॉ. रमन सिंह जी की एक बात याद आ गयी जो अखबारों ने छापी थी जो उन्होंने कार्यकर्ता सम्मेलन में कहा था “ विकास की गंगा बह रही है छत्तीसगढ़ में और अब इस विकास रूपी दूध से रबड़ी बनाना कार्यकर्ताओं का काम है ” पर क्या इन दस सालों में कार्यकर्ताओं के घरों में जलने वाले चूल्हों की खबर पार्टी के आला अधिकारियों ने ली है, जिस पर ये रबड़ी पकने की बात हो रही है। 2003 के चुनावों में जब भाजपा ने पहली बार प्रदेश में अपनी जीत दर्ज करायी थी, तब उसके पास एक ही संबल था- मजबूत संगठन और निष्ठावान कार्यकर्ता। दस साल सत्ता में बिताने के बाद अब निष्ठावान कार्यकर्ताओं की जगह प्रोफेशनल कंपनियों ने ले ली है, जो चुनावी मैनेजमेंट की बातें करते नजर आ रही हैं। इन चुनावों में भाजपा के कार्यकर्ता 3 खंडों में बंटे नजर आ रहे हैं। पहला- सत्ता के कार्यकर्ता, दूसरा- मैनेजमेंट कंपनियों के कार्यकर्ता और तीसरे- वो जो पिछले दस सालों की अनदेखी को याद कर सोच रहे हैं कि कौन सी राहें चुनें। अगर और तीक्ष्ण विश्लेषण किया जाए तो ऐसा लगने लगेगा कि भाजपा में सत्ता और संगठन आपस में काफी दूर हो चुके हैं और इस बार का चुनाव सत्ता लड़ रही है। ये चुनाव शायद डॉ. रमन सिंह जी के राजनैतिक कैरियर का सबसे अहम् चुनाव है, क्योंकि इस बार उनका चेहरा ही एकमात्र संबल नजर आ रहा है, शायद इसीलिए चुनावी प्रचार में भी वे अकेले ही दिख रहे हैं। 2013 के चुनाव डॉ. रमन के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि दिल्ली के गलियारों में अगर 2014 के आम चुनावों में गठबंधन की राजनीति में नरेंद्र मोदी फेल होते हैं तो डॉ. साहब का चेहरा भी प्रधानमंत्री पद के लिए प्रबल दावेदार होगा। पार्टी स्तर पर भी बड़े अधिकारियों में से अभी तक किसी ने कार्यकर्ताओं की पूछ परख शुरू नहीं की है। शायद टिकट बंटवारे के बाद इस ओर ध्यान जायेगा। इस साल जब 6000 किलोमीटर की विकास यात्रा निकली थी तब भी ये विरोधाभास साफ नजर आ रहा था। जो टिकटार्थी थे वही विकास यात्रा की परिक्रमा करते दिखाई पड़ते थे। अब ये कहना बिलकुल भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कांग्रेस की तरह भाजपा भी व्यक्तिवाद के रास्ते पर चल पड़ी है। पर भारतीय जनता पार्टी को एक बात पर विश्लेषण जरूर करना चाहिए कि जब-जब इस पार्टी ने व्यक्तिवाद के रास्ते पर चलने की कोशिश की है तब-तब उसे असफलता ही हाथ लगी है। भारत के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्री अटल विहारी बाजपेयी जी का चेहरा भी 2004 में सफलता नहीं दिला सका। प्रदेश में पिछले दस सालो में भाजपा की फिज़ा काफी बदल चुकी है, हर मंत्री कही न कही बंधा हुआ सा लगने लगा है मानो उनके विशेष कार्यकर्ताओ की लक्ष्मन रेखा को वो लांग ही नहीं पा रहे हो। हर आम कार्यकर्ता पिछले दस सालो से विशेष बनने की राह ताक रहे थे और देखते देखते 10 साल गुज़र गए इस आशा और उम्मीद में। विशेष कार्यकर्ताओ की सूझ समझ ने मंत्रियो को इतना अकेला कर दिया है की अब मंत्री भी शर्माने लगे है की आखिर आम और छोटे कार्यकर्ताओ के सामने क्या नया बहाना लेकर जाए। भाजपा के अन्दर एक जमाना ऐसा भी था जब बैठकों में कार्यकर्ता अपने घरो से डब्बो में अपने और अधिकारिओं के लिए भोजन लाया करते थे पर अब ५ सितारा होटलों ने उनसे बाजी मार ली है। कांग्रेस पहले से ५ सितारा पार्टी रही है इसलिए वह बदलाव ज्यादा नहीं दिखती शायद इसी बदलाव की गुंजाईश ने भाजपा को इतना आगे बढाया , पर अफ़सोस इस गुंजाईश ने सत्ता देखते ही दम तोड़ दिया। जहां कांग्रेस का आधार गांधी परिवार है, वहीं भाजपा का आधार आम कार्यकर्ता हैं। शायद भाजपा के कर्णधारों का ध्यान इस बात से हट गया है या थोड़ा भटक गया है। 90 के दशकों में जब भाजपा का जनाधार बढ़ा तब न इस पार्टी में मिनरल वाटर की बोतल थी और न ही चुनावी मैनेजर इस पार्टी में दिखाई पड़ते थे। लोग इस राजनैतिक पार्टी को सच में, पार्टी विथ अ डिफरेंस समझने लगे थे, पर अब सब कुछ फाइव स्टार की तर्ज पर होने लगा है। मानो फाइव स्टार केटेगरी में अब भाजपा, कांग्रेस से आगे होने लगी है। पिछले दस सालों में विकास तो सचमुच बहुत हुआ है इस प्रदेश में, पर शायद कार्यकर्ता इस विकास की आंधी से बाहर ही रहे। अब अगर अगले 5 साल के लिए प्रदेश में भाजपा की सरकार बनती है तो एकात्म मानववाद के रास्ते पर चलनी वाली इस पार्टी को अपने कार्यकर्ताओं के विकास पर भी ध्यान देना होगा। दूसरी ओर इन चुनावों में कांग्रेस की परिस्थिति काफी भिन्न लग रही है। जहां कांग्रेसी कार्यकर्ता पिछले चुनावों में अपने कपड़ों पर कलफ लगाये हुए सिर्फ भाषण देते दिखते थे, वहीं इस बार जमीनी स्तर पर मेहनत करते दिखाई पड़ रहे हैं। सत्ता पाने की उत्सुकता उनके चेहरे पर साफ दिखाई देने लगी है। उत्साह इतना है कि कांग्रेस कार्यालय में अब प्रचार सामग्री उठाने के लिए किराये के मजदूरों की जरूरत नहीं पड़ रही है। स्टाइलिश कांग्रेसी नेतागण प्रचार सामग्री खुद ही उठाते नजर आ रहे हैं, मानो दस सालों के वनवास ने इन्हें जमीन से जुडऩा सिख दिया हो।

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