Thursday, February 25, 2010

हाय महंगाई…

आज देश में न जाने कितने ही लोग ऐसे है जो अपनी जेब में दो-दो मोबाईल फोन रखते हैं पर आश्चर्य की बात यह है कि अब खाने की थाली में एक साथ दो सब्जियां मुश्किल से ही देखने को मिलता है। दिन-ब-दिन ऐशो-आराम की वस्तुएं सस्ती होती जा रही है, पर मूलभूत आवश्यकताओं की वस्तुओं के मूल्य में बेतहाशा वृद्धि होती जा रही है। इंसान की प्रमुख जरुरत की तीन चीजें रोटी, कपड़ा और मकान उसकी पहुंच से दूर होने लगी है।
महंगाई आज देश का सबसे वलंत मुद्दा है और शायद ही इससे कोई आज अछूता है। आर्थिक मंदी का भूत जैसे ही देश से थोड़ा दूर जाने लगा महंगाई ने देशवासियों को जकड़ लिया। जो कुप्रभाव आर्थिक मंदी अधूरी छोड़ गई उसे पूरा करने में महंगाई कोई कसर छोड़ नहीं रही है। महंगाई दर हर रोज नित नये कीर्तिमान स्थापित करते जा रही है। जिस पर देश के वित्तमंत्री कहते है ‘देश का जीडीपी ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ेगा महंगाई दर भी आगे बढ़ेगी’ पर आम आदमी को जीडीपी से क्या लेना-देना, उसे तो बस अपने दो वक्त के खाने की चिंता है। इस महंगाई की आपा-धापी में कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार के बयान आग में घी का काम कर रही है। अब वो दिन दूर नहीं शायद जब इस महंगाई के चलते लोग खुदखुशी जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाये। आज रसोई से लेकर नित्य उपयोग में आने वाली हर वस्तुओं के दामों में दिनों-दिन वृद्धि हो रही है। टूथ पेस्ट से लेकर साबुन तक और सिर पे लगाने वाले तेल की कीमत भी आसमान छूने लगी है। रसोई का तो क्या कहना। आटे-दाल के भाव तो आसमान पर ही है और तो और सब्जियां खरीदना भी अब आम मध्यम वर्ग के लिए मुश्किल साबित होने लगी है।
इस वक्त देश की कमान यूपीए नीत सरकार के पास है जिसे एक महिला यानी मैडम सोनिया गांधी संचालित करती है। भारत की परंपरा को देखें तो महिलाओं को लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता है, पर यह कैसी इतालवी लक्ष्मी है जिसने आम आदमी को रसोई में जाना दूभर कर दिया है। उनके ‘सुगर-किंग’ खाद्य मंत्री शरद पवार का क्या कहना। उनके एक-एक बयानों ने आम आदमी की रसोई में ऐसा कहर बरपाया कि उन्हें अब लोग टीवी पर देखने से भी डरने लगे हैं। शक्कर पर उनके बयान ने शक्कर को 32 रूपए किलो से सीधे 50 रूपए तक पहुंचा दिया और इस छलांग से उन्हें और उनके पार्टी के कुछ नेताओं को रातों-रात करोड़ों रूपए का फायदा हो गया, क्योंकि महाराष्ट्र में कुल 17 चीनी मिले ऐसी हैं जो या तो शरद पवार के मालिकाना हक की है या फिर उनके पार्टी के किसी न किसी नेता की है। उसके बाद मौका मिला तो उन्होंने दूध को भी नहीं बख्शा। दूध की कीमतों में जबरदस्त वृद्धि देखी गई। पिछले एक सप्ताह में दूध की कीमतों में 2 से लेकर 4 रूपए प्रति लीटर की बढोत्तरी हुई। दाल और चावल को तो उन्होंने पहले से ही आम आदमी की पहुंच से दूर रखा है।
कीमतों में बढ़ोत्तरी का आलम यह है कि आज 100 रूपए का नोट बाजार में सिर्फ 1 किलो दाल ही दिला सकती है इससे यादा कुछ नहीं। ध्यान देने वाली बात यह है कि आखिर देश में ऐसा क्या हो गया कि पिछले एक साल में कीमतें आसमान पर पहुंच गई। कीमतों में बढ़ोत्तरी का प्रतिशत अगर पिछले साल के मूल्यों की तुलना में देखा जाए तो यह पता चलता है कि लगभग सभी खाद्य वस्तुओं में 50 से लेकर 100 फीसदी की मूल्य वृध्दि हुई है। आखिर किन कारणों से ऐसी परिस्थति निर्मित हुई है। इसका जवाब दिल्ली में बैठे निजामों को देना ही पड़ेगा। क्या एक साल में कृषि प्रधान भारत का कृषि उत्पाद आधा हो गया? क्या देश में गन्ने की खेती एक ही साल में 50 फीसदी घट गई? क्या देश का पशुधन भी घट गया? ऐसे न जाने कितने ही सवाल इन पंक्तियों को लिखते समय मेरे ध्यान को अपनी ओर आकर्षित करती रही। आज भारत का हर नागरिक खाद्य मंत्री की ओर इन सवालों के जवाब के लिए देख रहा है, और बशर्मी की हद तो जब हो गई जब 23-2-2010 को देश की सर्वोच्च संस्था यानी लोक सभा में महंगाई पर काम रोको प्रस्ताव पर बहस चल रही थी तो शरद पवार साहब अपनी मादक और कुटिल मुस्कान से सबको हतप्रभ करते रहे पर उनके पास किसी सवाल का कोई जवाब नहीं था। उनके साथ सोनिया जी भी बेबस बैठी नजर आ रही थी।
क्या देश में चुने हुए सरकार को 5 साल तक अपनी मनमानी करनी की खुली छूट है? अगर हां तो यह कैसा लोकतंत्र है? जहां देश में चुनावी वादों का मौसम जाते ही देश का आम आदमी अपनी जेब पर बढ़ती बोझ तले दबने लगता है। इस बार चुनावों के दौरान कांग्रेस ने एक नारा दिया था, ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ ‘ सच पूछों तो यह नारा सच प्रतीत होता नजर आ रहा है बस थोड़े मायने बदल गए हैं। नये रूप में इस नारा को देखें तो ऐसा लगता है कि ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के जेब को करता है साफ’।
देश की जनसंख्या का लगभग 5 प्रतिशत ही हवाई सफर करने में सक्षम है पर इंडियन एयरलाइंस को मंदी से उबारने की चिंता सरकार को इतनी है कि माननीय नागरिक उद्ययन मंत्री श्री प्रफुल्ल पटेल ने इस मंदी से उबरने के लिए विशेष पैकेज की मांग कर डाली पर क्यों न इस विशेष पैकेज के बजाय किराये में बढ़ोत्तरी की जाये। इस बाबत् उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। इस मद में जाने वाली धन को अगर खाद्य सामग्रियों की कीमत को कम करने में लगाया जाये तो शायद वो 5 प्रतिशत की जगह देश के संपूर्ण जनसंख्या के लिए फायदेमंद होगा। इसी तरह पिछले साल आटो मैन्यूफैक्चर्स को मंदी से उबारने के लिए विशेष पैकेज आबंटित किया गया जो कि कई हजार करोड़ रूपए की थी पर सरकार को यह नहीं मालूम था कि देश में सिर्फ 22 प्रतिशत लोग ही अपना कार खरीदने का सपना पूरा कर पाते हैं। तो फिर यह फैसला किन दबावों के चलते सरकार ने लिया था इस पर भी विचार होना चाहिए।
आज क्यों न देश का हर पार्टी महंगाई के इस मुद्दे पर एक राय बनाने और आम आदमी को इस महंगाई की आग से बचाने के लिए कोई प्रयास करें। क्योंकि आज नहीं तो कल इन पार्टियों को वोटरों के पास दोबारा जाना तो ही पड़ेगा ही। देशवासियों ने भले ही इस बार प्रमुख विपक्षीय पार्टी भाजपा को नकार दिया हो पर ये वक्त भाजपा के लिए परीक्षा की घड़ी से कम नहीं है। जब उसके पास मौका है देश के हर नागरिकों के हक के लिए लड़ने का। मंदिर मस्जिद विवाद तो चलता रहेगा पर देश के हर घर में चूल्हे जलते रहे यह सुनिश्चित करना देश के हर पार्टी के लिए सर्वोपरि है।

Tuesday, February 23, 2010

छत्तीसगढ़ प्रदेश आईएएस अधिकारियों के भरोसे

कई सालों के लंबे प्रयास और इस प्रांत के लोगों द्वारा किये गये न जाने कितने आदोलनों के वजह से बने छत्तीसगढ़ प्रदेश अपने जन्म से ही आईएएस अधिकारियों का रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब इस प्रदेश की घोषणा की होगी तब उन्होंने यहां रह रहे जनमानस की भलाई को ध्यान में रखते हुये यह कदम उठाया होगा। पर उनके घोषणा के तुरंत बाद ही इस प्रदेश को एक नया मुख्यमंत्री मिला जो कि आईएएस अधिकारी था और तब से अब तक प्रदेश की कार्यशैली पर गौर किया जाये तो ऐसा लगता है कि जैसे माननीय अटल जी ने नया प्रदेश का निर्माण तो किया पर शायद इन अधिकारियों ने उसे अपना गिफ्ट समझ लिया हो। अजीत जोगी शासनकाल में तो मानो मंत्री पद भी इन अधिकारियों ने अपने पास गिरवी रखवा लिया था। किसी मंत्री को अपने अरदली तक का ट्रांसफर या पदोन्नति का अधिकार नहीं था जो भी होता वो या तो मुख्यमंत्री या उन्हें घेरे हुये अधिकारी करते थे। ये तमाम अधिकारी जो उस वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी के नाम से कसमें खाने को तैयार रहते थे वो आज या तो प्रतिनियुक्ति लेकर अनयंत्र चल गये है या उन्होने अपना भगवान बदल लिया है। क्योंकि अधिकारी तो अधिकारी होता उसे क्या फर्क पड़ता है किसी की भी सरकार रहे। पर इस परीपाटी की कीमत तो कांग्रेस चुका रही है पिछले दो चुनाव उसे हार का स्वाद चखना पडा। वही ये अधिकारी अक्सर आज अजीत जोगी को पहचान भी नहीं पाते है।
भाजपा जब 2003 में सरकार पर काबिज हुई और कार्यकर्ताओं में इतना जोश था कि इन अधिकारियों को लगा कि कुछ दिन शांत रहे तो ही अच्छा है। पर धीरे-धीरे कार्यकर्ताओं का जोश और सत्ता पार्टी का डंडा इतना खामोश हो या कि मानो सत्ता पक्ष ने अपने हाथों से प्रदेश की बागडौर इन आईएएस अधिकारियों को सौप दी है। डॉ। रमन सिंह के प्रथम कार्यकाल में तो सब कुछ ठीक रहा उनके मंत्रियों की भी चली, मंत्रियों ने अपने कार्यकर्ताओं का भी ध्यान रखा और शायद तभी उन्हें दोबारा सत्ता में आने का मौका प्राप्त हुआ। खैर ऐसे यह मानना भी गलत नहीं होगा कि डॉ रमन सिंह के भोले-भाले व्यक्तित्व का भी उन्हें फायदा मिला था। जो शायद उनके विरोधियों का हजम नहीं हुआ। इसी वजह से उनके दोबारा सत्ता में आते ही होने ही ऐसी खबरे राजनैतिक गलियारों में फैला दी गई की सावधान हो जाओ अब रमन सिंह बदल गये है और इन सब से किसी का भला हो न हो तत्कालीन लाभ कांग्रेस को तो मिला नगरीय निकाय और पंचायत चुनावों में कुछ सफलताएं तो उसके हाथ लगी।
प्रदेश की वर्तमान परिस्थितियों को देखे तो ऐसा लगने लगा है कि मानो दोबारा अधिकारियों की चल निकली है। दोबारा अधिकारी मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द घेरा बनाने में सफल हो गये है। दुबारा सत्ता में आये भाजपा को लगभग एक वर्ष से यादा हो चुका है पर अब तक निगम-मंडलों में इन अधिकारियों पर कब्जा बरकरार है। मंत्रियों को भी अब अधिकारियों को नजरअंदाज करने लगी है। मनमानी तो इस कदर हावी है इन अधिकारियों पर की एक-एक आईएएस अधिकारी के पास चार-चार विभागों के दायित्व है। जब काम के बारे में पूछा जाता है तो बड़े ही आसानी से यही अधिकारी कह देते है कि काम के बोझ कुछ यादा हो गयी है साहब और साहब तो है ही भोले वो भी खामोश हो जाते है। हालत यह है कि ऐसा कोई विभाग नहीं बचा है जहां आईएएस अपना डंडा न चला रहा हो चाहे शिक्षा,तकनीकी शिक्षा, उद्यानिकी, कृषि, उद्योग, जनसंपर्क, स्वास्थ्य, पर्यटन, संस्कृति, ऊर्जा, शहरी विकास चारों ओर अगर कोई डंका बज रहा है तो सिर्फ और सिर्फ इन अधिकारियों का। हाल ही में इन अधिकारियों की मिलीभगत से प्रदेश ने एक नया कीर्तिमान भी रच डाला। पूरे भारत में कोई ऐसा प्रदेश नहीं है जहां स्वास्थ्‍य विभाग में सर्वोपरी अधिकारी आईएएस हो सारे प्रदेशो में इस पद को डॉक्टरों के लिए ही छोड़ दिया जाता है पर वाह रे छत्तीसगढ़ के अधिकारीगण इस पद पर भी एक नये नवेले युवा आईएएस को मौका दिया गया। यह बिल्कुल ही एक कीर्तिमान होगा जब आईएएस अधिकारी पोस्टमार्टम की बारीकियां समझायेंगे। अधिकारियों की और समझनी है तो सूनीये कुछ माह पहले जब दोबार भाजपा की सरकार बनी तब प्रदेश के एक नामचीन अखबार ने कुछ हफ्तो तक मंत्रीयो के साक्षात्कार छापना शुरू किया पर ये क्या शायद बीच में ही उस पत्रकार को लगा कि अब मंत्रियों के दिन तो लद गये है अब तो अधिकारियों की बारी है। तो उस अखबार ने बीच में उस साक्षात्कार की श्रेणी को बंद कर अधिकारियों का साक्षात्कार छापने लग गया।
नगरीय और पंचायत चुनावों में अपेक्षीत परिणाम नहीं आये तो संगठन के कु छ बड़े नेताओं की आखें टेड़ी हो गई और तुरंत ही वे रायपुर आकर नेताओं की क्लास लेने लग गये। पर उनके सामने मुहं खोले तो कौन? सारे नेतागण चुपचाप असहाय होकर कड़वे प्रवचनों का लाभ लेते रहें।
पर संगठन अब यह समझ लेना चाहिए कि प्रदेश के दो करोड़ सात लाख जनता ने भारतीय जनता पार्टी को चुना है न कि इन वातानुकुलित कमरों में बैठने वाले अधिकारियों को। कहावत है कि हाथ कंगन को आरसी क्या, और पढे लिखे को फारसी क्या, इस कहावत को चरितार्थ देखने मिला रायपुर में, कुछ माह पूर्व ही एक नए नवेले और तेज तर्रार अधिकारी ने रायपुर में चुन चुनकर बुलडोजर चलवाये और जिसका खामियाजा सालों से पार्टी के लिए मेहनत कर रहे कार्यकर्ताओं ने नगर निगम चुनावो में अपने हार से चुकाया। उक्त अधिकारी को इस साहसिक कार्य के लिए तोहफे में मंत्रालय में और बड़ा कमरा दिया गया।
भाजपा संगठन के मठाधिशों जल्दी से जाग जाओ वरना वह दिन दूर नहीं जब सत्ता चली जाएगी और रह जाएगी तो सिर्फ आंदोलन और धरनाएं।

क्षेत्रीयता पर कांग्रेस और उसके युवराज की दोहरी मानसिकता

अखंड भारत न जाने कितने बार विभक्त हो चुका है ये तो शायद इतिहास के पन्ने पलटने से ही पता चल पाएगा। आजादी के पहले और बाद में भारत अपने कई हिस्से से अलग होता रहा है। यह भी सच है कि आजादी की कीमत के रूप में भारत के तीन टुकड़े कर दिया गया। उसके बाद भी विदेशी ताकतों की नजर जम्मू-कश्मीर से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक बनी हुई है और शायद क भी उनके नापाक इरादे हकीकत मे भी बदल जाएं।
पर तेजी से बदलते परीदृश्य में अब खतरा बाहरी ताकतों के बजाय अंदरूनी राजनीति से यादा बढ़ गयी है। प्रादेशिक राजनीति ही हवा अब लू में बदल गयी है और देश को झूलसाने में आमादा है। छोटे-बड़े सभी राय में अब दोहरी नागरीक व्यवस्था लागू करने की बात कही जाने लगी है। काग्रेस जो आजादी से ही देश को विभक्त करने की राजनीति करती आ रही है आज भी उसी काम में लगी है। भले ही गांधी परिवार के चेहरे बदल गये है पर रवैया वही पुराना है और खेल वही आजमाया हुआ खेला जा रहा है ताकि अगले कई पुश्तों तक गांधी, नेहरू परिवार का कोई पर्याय उपज न पाए।
कांग्रेस के युवराज जब उत्तरप्रदेश और बिहार की खाख छान रहे थे और जोर गले से बोल रहे थे कि मैं उत्तर भारतीयों के साथ खड़ा हूं और रहूंगा तभी दूसरी ओर कांग्रेस शासित प्रदेश महाराष्ट्र में टैक्सियों पर मराठी मानुस की राजनीति का पारा गरम हो रहा था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने हंसते-हंसते बड़े ही आसानी से कह दिया कि प्रदेश में वो ही टैक्सी चला पाएगा जिसे मराठी भाषा बोलनी, पढ़नी और लिखनी आती हो। इसी कड़ी में राहुल गांधी ने भी मराठी मानुस का कार्ड खेलते हुए युवक कांग्रेस की कमान महाराष्ट्र के युवा विधायक को सौंप दी। और तो और राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश और बिहार का दौरा करने के बाद सीधे महाराष्ट्र ही दिखा। शायद उत्तर प्रदेश में दिए भाषणों को वे मराठी मानुषों के मन से निकालना चाहते हो, तभी उन्होंने वहां लोकल ट्रेन में भी सफर किया जिसके फोटों उन्होंने देशभर के हर अखबारों में छपवाया। मानना तो पड़ेगा कि वो मेहनत तो खूब कर रहे हो भले ही देश को तोड़ने के लिए क्यों न हो।
दूसरी ओर इस कदम में उनकी माताजी का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है। यूपीए के रेल मंत्री ममता बैनर्जी जिन्हें भारतीय रेल के बजाय पश्चिम बंगाल के रेलमंत्री कहा जाए तो गलत न होगा। क्योंकि उनकी सारी योजनाएं सिर्फ पश्चिम बंगाल के लिए ही होती है और क्यों न हो अगले साल विधानसभा चुनाव जो होना है। जब तक लालू रेल मंत्री रहे रेलवे का ध्यान बिहार के तरफ रहा और अब बंगाल की तरफ पटरीयां मुड़ती जा रही है पर यूपीए को इससे कोई मतलब नहीं है। उन्हें बंगाल में कम्यूनिष्टों का पतन देखने की ज्‍यादा इच्छा है। हाल ही में सोनिया गांधी की विशेष फरमाइश पर ममता बैनर्जी ने एक साथ उत्तर प्रदेश और बिहार को 17 ट्रेनों की सौगात दे डाली और एक कोच फैक्ट्री बनाने की योजना उत्तर प्रदेश में रख दी। पर इस दौरान् हुए कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कहीं भी नहीं दिखाई दी। शायद कांग्रेस और मायावती की दूरी इतनी बढ़ गयी है कि संवैधानिक मान्यताओं को भी उत्तर प्रदेश में भुला दिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों ही ऐसे प्रदेश है जहां काफी संख्या में लोकसभा की सीटें है और शायद इसी लिए कांग्रेस पार्टी इन दोनों प्रदेशों को छोड़कर किसी दूसरे प्रदेश में अभी ध्यान नहीं देना चाहती है।
एक तरफ तो कांग्रेस नित सरकार महाराष्ट्र में राज ठाकरे जैसी ताकतों को हवा देने में लगी रहती है और उन्हें खुलेआम उत्तर भारतीयों पर हमला करने देती है और दूसरी तरफ यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी उन जख्मों पर मरहम लगाने को हमेशा आतुर दिखती है।
पर कहीं ये सारी व्यवस्थाएं केन्द्र और राय सरकारों की बीच दूरी इतनी न बढ़ा दे कि अलग रायों की तरह ही अलग देशों की मांग उठने लग जाए। छत्तीसगढ़ जैसे छोटे प्रदेशों में लगता है कि अब गांधी परिवार का कोई रूची नहीं रह गया है। तभी इन प्रदेशों का न तो वे दौरा करते है और न ही इन प्रदेशों के लिए कोई नई योजनाएं केन्द्र द्वारा बनाई जाती है। छत्तीसगढ, उत्तरांचल और झारखंण्ड ऐसे तीन प्रदेश है जो कि अपने बाल्यकाल से गुजर रहे है पर न तो इनके लिए कोई नई योजनाऐं अबतक लागू हो पायी है और ना ही यहां से किसी को केन्द्र में नेतृत्व करने का मौका मिल पा रहा है। शायद इन्ही कारणों के वजह से कांग्रेस को यहां इन प्रदेशों में हार का स्वाद भी बार-बार चखना पड़ रहा है।
राजनीति के दिग्गज मां-बेटे को कब इस क्षेत्रीयता से मुक्ति मिल पाएगी यह देखना लाजमी होगा और तब तक शायद हम जैसे छोटे प्रदेशों के नागरिको को केन्द्र सरकार की उपेक्षा ही झेलनी पड़ेगी।

Sunday, February 21, 2010

सुप्रीम कोर्ट बनाम लोकतंत्र

एक तरफ तो साल दर साल हम गणतंत्र दिवस मनाते हुए बड़े गर्व से कहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक है, और दूसरी ओर देश के लोकतांत्रिक ढांचे को किसी न किसी तरह से नुकसान पहुंचाने की कोशिश ढके-छुपे तौर पर जारी रहती है। हमारे देश में ”लोगों द्वारा लोगों के लिए सरकार चुनने की प्रक्रिया है” जिसे हम लोकतंत्र का नाम देते हैं। पर इन 61 सालों में इसके पर्याय को कई बार तोड़ा और मरोड़ा गया है। हालांकि परिस्थिति को देखा जाए तो लोकतंत्र का मतलब है कि देश के समस्त व्यस्क नागरिकों द्वारा चुना गया कुछ राजाओं, युवराजों और सीमित परिवारों की सरकार। जो दिल्ली की गद्दी पर बैठकर अपनी इच्छाशक्ति के अनुरूप देश को चलाए और इसका दोहन करें। इस देश की परिपाटी के अनुसार ही सबकुछ चल रहा है भले ही राजे रजवाड़ों का अंत हो चुका है, पर कायदे वहीं चल रहे हैं। अब बाप-दादाओं की राजनीतिक पार्टियों को उनके पोते-पोतियां अपनी जागीर समझ कर चलाते हैं।
खैर ये सब तो हुई राजनीतिक बातें। अब तो सुप्रीम कोर्ट भी हमारे लोकतंत्र की ओर आंखें टेड़ी कर देखने लगी हैं। आज सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल के ऊपर चल रहे एक मामले की सुनवाई करते हुए तुगलकी अंदाज में फरमान सुना दिया कि अब राय सरकारों के अनुमति के बगैर भी सीबीआई जांच की जा सकेगी। ये तो किसी से छिपी हुई नहीं है कि सीबीआई किस सरकार के इशारे पर काम करती है और अब तक न जाने कितने ही बार सीबीआई की कार्यशैली पर उंगलियां उठ चुकी हैं। ये वही सीबीआई है ,जो 1984 से चले आ रहे बोफोर्स तोप सौदे पर अपनी दलीलें बदल चुकी हैं। जब-जब केन्द्र में कांग्रेस की सरकार रहीं, सीबीआई जांच की दिशाएं बदलती रही हैं। सीबीआई की और तारीफ क्या करें, छोटे से आरूषि हत्याकांड का पर्दाफाश तो कर नहीं पाती है। तो ऐसे में दूसरे बड़े मामलों की बात करना बेमानी ही लगती है। पर ये बातें जरूर समझनी होगी कि आखिर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फैसला किस बूते लिया। भारत वर्ष के कुल 28 प्रदेशों में लोकतांत्रिक ढंग से चुनीं हुईं सरकारें हैं, तो क्या ये मान लेना चाहिए कि माननीय सुप्रीम कोर्ट को अब इन सरकारों पर भरोसा नहीं रह गया है।
इस बात पर भी ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है कि क्या सुप्रीम कोर्ट 110 करोड़ की जनसंख्या वाले लोकतंत्र से बढ़कर है। सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश कब दिया, यह भी बहुत मायने रखती हैं, पश्चिम बंगाल सरकार और केन्द्र सरकार के बीच में मीदनापुर में हुए गोलीबारी पर बहस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश जारी किया। मीदनापुर में हुए इस घटना में कथित रूप से तृणमूल कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ता मारे गए थे। इस घटना की सीबीआई जांच के लिए रेलमंत्री सुश्री ममता बेनर्जी पिछले कई दिनों से के न्द्र की यूपीए नीत सरकार पर दबाव बनाए हुए थीं। तो क्या ये भी समझना लाजमी हो सकता है कि उक्त मामले में केन्द्र सरकार के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट भी दबाव में थी।
सीबीआई के बारे में आगे क्या कहें यह भी समझ नहीं आता क्योकि यह भी खुलेतौर पर साबित हो चुका है कि सीबीआई केन्द्र सरकार के हाथ की कठपुतली होती है, पर सुप्रीम कोर्ट भी उस रस्ते चल पड़ेगी यह समझ से परे है। यह आदेश सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के बेंच ने कहा ”अदालतोें को सीबीआई जांच से संबंधित आदेश देने का अधिकार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व वाले मामलों में असाधारण और विशिष्ट हालात में कभी कभार ही रहेगी।” पर ये बात कही भी स्पष्ट नहीं होती कि दो राजनैतिक पार्टीयों में चल रहे रंजिश कब से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व रखने लगी है। मुबंई में हुए आतंकवादी हमलों के बाद कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे सामने आये जैसे बुलेट प्रुफ जैकेट की खरीदी में हुए घोटाले आदि। तब माननिय सुप्रीम कोर्ट को यह आदेश देने की क्यों नहीं सूझी? न्यायधीशों के संपत्तियों का ब्यौरा देने की बात आयी तब भी सुप्रीम कोर्ट खामोश रही और अबतक न जाने कितने ही न्यायधीशों ने अपने संपत्तियों का पूर्ण ब्यौरा पेश नही किया है। सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर भी क्यो न कोई आदेश पारित करें?
सीपीएम नीति पश्चिम बंगाल शायद उसी दिन से ही यूपीए के आकाओं के आखों में किरकिरी बन गयी थी जब पिछले लोकसभी में परमाणु मुद्दे पर तत्कालिन सरकार से वामपंथी दलों ने समर्थन वापस ले लिया था। तो अब बस यही कदम बचा था कि सीबीआई का फंदा तैयार किया जाए और ऐन केन प्रकारेन से वामपंथियों के पतन का खाका तैयार किया जाए।
पर ये बात देश के लिए दुर्भाग्य पूर्ण है कि लोकतंत्र की चुनौति के रूप में अब सुप्रीम कोर्ट का भी इस्तेमाल होने लगा है। आज पश्चिम बंगाल में सुप्रीम कोर्ट की नजर पड़ी है शायद कल गुजरात पर पड़े क्योंकि नरेन्द्र मोदी के नाक में भी नकेल डालने की कोशिश कांग्रेस हमेशा से ही करती आ रही है। ऐसे फैसलों से एक बाद स्पष्ट हो जाती है कि केन्द्र सरकार और राय सरकारों के बीच तालमेंल राजनैतिक कारणों से प्रभावित होते जा रही है।