Thursday, April 8, 2010

कहां गए मानवाधिकार के नुमाइंदे

देश का सबसे बड़ा नक्‍सली हमला पूरी तरह से शांत हो चुका है, जहां हमला हुआ था वो ‘चिंतलनार ‘ भी शांत हो गया है। पर कहीं न कहीं चिंतलनार के उन सूनी रास्तों में पड़े हुए खून के छींटे और हमारे वीर जवानों के अवशेष चींख-चींख कर इस बर्बर कृत्य को बयान कर रही है। 6 तारीख को घटे इस घटना में देश के 80 ऐसे जवान शहीद हो गए जिनके वजह से हम जैसे आम आदमी रात को अपने घरों में आराम से सो पाते है। युद्ध के भी कुछ नियम कायदे होते है, पर इन नक्‍सलियों ने जैसे इस घटना को अंजाम दिया है उससे तो नहीं लगता है कि इन नकसलियों के पास कोई इंसानियत जैसी चीज बची हुई होगी। सूत्र बताते है कि लगभग एह हजार नक्‍सलियों ने घेरा बनाकर मात्र 120 जवानों पर हमला किया और उनके अंतिम सांस चलने तक उन पर गोलियां बरसाई। इस घटना में नक्‍सलियों ने प्रेशर बमों का भी खूब इस्तेमाल किया ताकि जवानों को भागने का मौका भी न मिल पाये और जब जवानों की मृत्यु हो चुकी थी तो नक्‍सलियों ने उन्हें लूटने में भी कोई कसर नहीं छोड़ा, मृत सैनिकों के शरीरों से जूते-मोजे तक उतार लिए।
इन 80 जवानों से जुडे न जाने कितने ही परिवारों के दीये इन कायर नक्‍सलियों ने रात के अंधेरे में बुझा दिया। कितने ही बच्चे अनाथ हो गए और कितने ही औरतें विधवा। देश का हर वर्ग इस घटना से रोष में है पर अगर कोई शांत है तो वो है मानव-अधिकारों पर बोलने वाले अमिर मानवाधिकारविद, न जाने ऐसी कौन सी नींद में सोए हुए है ये तमाम लोग। अगर नकसल प्रभावित क्षेत्र में कोई जवान किसी नक्‍सली को एक थप्पड़ भी मारता है तो दिल्ली में बैठे मानवाधिकार के इन तथाकथित नुमाइंदों को उस थप्पड़ की गूंज सुनाई देने लगती है और फौरन ही हजारों रूपए विमान यात्रा और शाही होटल किराये में फुंककर वे बस्तर पहुंच जाते है। प्रश्न यह है कि आज इन बुद्धिजीवियों को क्‍या हुआ है कयों इनके कर्कश जुबान नहीं खुल रहे है, कया सारे नियम-कायदे देश की सुरक्षा में लगे इन जवानों पर ही लागू होते हैं?
मानवाधिकार का मतलब यह होता है कि हर मानवजाति जो इस विश्व में है उनसे सबंधित एक न्यूनतम मापदंड जिसका पालन सेनाओं को भी करना पड़ता है। पर क्‍या ऐसा युद्ध संभव है जहां एक तरफ से लड़ने वाले सारे नियमों में बंधकर लड़ाई लडे और दूसरी ओर नक्‍सली सारे नियम-कायदों को ताक में रखकर इन पर हमला करें।
आज हमारे देश के एक बहुत बड़े हिस्से को लाल गलियारा कहा जाने लगा है। कमोवेश हर राय में जहां नक्‍सलियों का आतंक है उन जगहों पर मानवाधिकारवादियों की भी एक समानांतर सेना कागजों में अपने ही सरकार को घेरने के लिए तैयार खड़ी रहती है। मानवाधिकारवादियों की उस सेना में बड़ी संखया में बुद्धिजीवियों का एक जमावड़ा देखने को मिलता है। पर मुझे इन बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर तरस आता है, क्‍योंकि ये तमाम लोग नक्‍सलियों को दोस्त और जवानों को दुश्मन बताने में लगे रहते है। कुछ दिनों पूर्व सुश्री मेधा पाटकर अपने लाव-लश्कर के साथ बस्तर पहुंच गई और दो दिनों तक वहां डेरा डाले रखा और खूब मेहनत कर ऐसे कुछ मुद्दों को खोज निकाली, जिससे नक्‍सल विरोधी सरकार के अभियान को धक्का लगाया जा सके और रायपुर आकर एक प्रेस कांन्फ्रेस भी ली। उनके साथ अंग्रेजी में बात करने वालों की एक बड़ी टीम भी थी जो शायद बुध्दिजीवी थे। पर आज ये मानवाधिकारवादी कहां हैं, अबतक दो दिन गुजर चुके हैं, इस बर्बर घटना को घटित हुए पर किसी भी मानवाधिकारवादी का कोई बयान तक नहीं आया है। अगर अभी मेधा जी बस्तर आये तो उन्हें यादा मेहनत भी नहीं करनी पडेग़ी तथ्यों को खोजने के लिए। कयोंकि हमारे जवानों के जख्म अभी भी हरे ही है।
पर इस बात को तो माननी ही पडेग़ी कि नक्‍सलियों ने एक ऐसा वर्ग को जोड़ लिया है जो उन्हें बाहर से हर संभव मदद पहुंचाने के लिए तत्पर रहता है। ऐसे अखबारों की भी कमी नहीं है जो मानवाधिकार की आड़ लेकर घर-घर तक नकसली विचारधाराओं को पहुंचाने में लगी रहती है। नकसलियों ने पढे-लिख बुद्धिजीवी की एक अलग सेना बना ली है, ऐसा कहा जाये तो भी गलत नहीं होगा।
नक्‍सलबाड़ी आंदोलन की जब शुरूआत हुई थी उस समय सचमुच यह एक आंदोलन ही थी जिससे जनभावनाओं का समागम था। पर आज नक्‍सलवाद एक व्यापार का रूप ले चुकी है। सूत्रों की माने तो छत्‍तीसगढ़, झारखंण्ड, प.बंगाल और उडीसा से नक्‍सली संगठन हर साल लगभग 1000 करोड़ रूपये कमाते है। कमाई का मुख्‍य स्त्रोत गांजे और अफीम की खेती, वनोपज की हेरा-फेरी, इमारती लकड़ियों की तस्करी, अवैध खनिज उत्खनन और ठेकेदारों और औद्योगिक घरानों से अवैध वसूली शामिल है। इस कमाई का बड़ा हिस्सा ये मानवाधिकारवादियों को पालने में भी खर्चते है ताकि वक्त-वक्त ये मानवाधिकारवादी उन्हें कागजी कार्रवाही के द्वारा मदद कर पाये है। तभी तो आज तक बस्तर के जितने मानवाधिकारीवादी आते है, सब विमानों के द्वारा और एसी कारों का लुफ्त लेते हुए अपने कार्यों को अंजाम दे जाते हैं।
सरकारों और राजनैतिक पार्टियों को इस मुद्दों को समझना होगा। अब इन नक्‍सलियों ने समझा दिया है कि ढुलमुल रवैये से इस समस्या का निवारण नहीं हो सकता है। कठोर नियम बनाने होंगे, नक्‍सलियों के साथ-साथ उनके इन अप्रत्यक्ष साथियों को भी कानून के दायरें में लाना होगा। आज पूरा देश डॉ. रमन सिंह और गृहमंत्री पी.चिदंबरम के साथ इस मुद्दे पर खड़ा है। इन शहीदों को न्याय मिलना चाहिए, उनका बलिदान खाली नहीं जाना चाहिए। अब देखना होगा कि यह तमान मानवाधिकारवादी कब तक खामोश बैठते है। आज आम जनता को भी चाहिए कि इन बुद्धिजीवियों को सिरे से नकार दें ताकि समाज से उनका दुष्प्रभाव खत्म हो जाए।

1 comment:

  1. बहुत सटीक सामयिक लेख.
    सहीं लिखा है भाई आपने - आज आम जनता को भी चाहिए कि इन बुद्धिजीवियों को सिरे से नकार दें ताकि समाज से उनका दुष्प्रभाव खत्म हो जाए।

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